बीस साल बाद भी उस 80 साल के बुजुर्ग का चेहरा मैं भूल नहीं पाया। झुर्रियों से अटे उस चेहरे से भरभर टपकते आंसू और खरखराती आवाज। वह आवाज आज भी मेरे कानों में गूंजती है। अयोध्या में विवादित जमीन के पास खड़े उस बुजुर्ग ने बड़ी मासूमियत से कहा था- ‘आज अगर राजीव गांधी जिंदा होते तो अमर हो जाते।’ मैंने बस इतना पूछा था बाबा आपको कैसा लग रहा है। यह पूछना था कि वह फफक-फफक कर रो पड़े। मैं उन दिनों जेएनयू में पढ़ रहा था।
सीपीआई ने अयोध्या में रैली का आह्वान किया था। सी. राजेश्वर राव सीपीआई के जनरल सेक्रेटरी थे। मैं और सुहेल रैली में शामिल होने चल पड़े थे। रामजन्म भूमि के नाम पर संघ परिवार का उन्माद अपने उफान पर था। ट्रेन में कई बार मारपीट होते-होते बची थी। बचते-बचाते हम अयोध्या पहुंचे।
स्टेशन से उतर कर पैदल ही हम बाबरी मस्जिद की तरफ बढ़े। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, सुहेल के चेहरे की लकीरें बदलती जा रही थीं। अचानक एक मोड़ पर सुहेल रुका और बोला मैं अब आगे नहीं जाऊंगा। तुम चले जाओ। डर तो मुझे भी लग रहा था, पर मैं आगे बढ़ता गया। वहां इस बुजुर्ग से मुलाकात हुई।
बुजुर्ग की झुर्रियां मुझसे कह रह थीं कि राममंदिर मुद्दे ने किस तरह से एक तबके को झकझोर दिया था और सुहेल की लकीरें बता रही थीं कि इस धार्मिक उन्माद ने कैसे मुस्लिम तबके में डर और खौफ पैदा कर दिया था। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शक की एक मोटी दीवार खड़ी कर दी गयी थी।
एक तरफ से जितनी तेज हुंकार होती, दूसरी तरफ से उससे तेज आवाज में जवाब देने की कोशिश होती। यह असाधारण दौर था। तर्क और विवेक कहीं किसी काल-कोठरी में छिप गये थे। ऐसे में 30 सितंबर को जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और दोनों तरफ से कटु बातें नहीं हुईं तो मैंने चैन की सांस ली यानी अब साधारण माहौल में बात हो सकती है।
माहौल में इस बदलाव की गंभीरता को कुछ लोग अभी भी समझना नहीं चाहते हैं। इनको अदालत का फैसला पंचायती फैसला लगता है। और वह कहते हैं कि तथ्यों और साक्ष्यों से ज्यादा आस्था पर भरोसा किया गया है, जो खतरनाक है। पर क्या इस साधारण दौर में भी यह कहना विवेकसम्मत होगा कि वह जगह रामलला की नहीं है और उन्हें वहां से हटा देना चाहिये?
कानून की पेचीदगियों में फंसे लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं है कि ऐसा करने का मतलब उस बुजुर्ग के लिये क्या होगा? और क्या महज जमीन के विवाद का नाम देकर फैसला हिंदू या मुसलमान के पक्ष में कर दिया जाता? जिसे हिंदू राममंदिर मान रहे हैं, वह वहां से बेदखल कर दिये जायें या फिर जो उसे मस्जिद कहते हैं, उनसे वो जमीन छीन कर हिंदुओं को दे दी जाती? क्या लोगों को अहसास है कि इससे सुहेल पर क्या असर होता और किस तरह की भावनाएं फिर भड़कतीं? शायद नहीं? पूरी जमीन किसी के भी पक्ष में जाती, दूसरा पक्ष अपने को ठगा हुआ महसूस करता और जाने-अनजाने उसे साजिश की बू आती।
कानून के जानकारों को समझना चाहिये कि यह मसला जमीन का होता तो कभी का निपट गया होता। यह मसला दोनों समुदायों के बीच आस्था का भी होता तो भी दोनों पक्षों के धर्मगुरु हल निकाल लेते। मसला इतिहास से बदला लेने और वर्तमान में अपने अस्तित्व को बचाये रखने का है।
एक पक्ष को लगता है कि इतिहास में मुस्लिमों ने हिंदुओं पर भारी जुल्म किये हैं और अब बदला लेने का वक्त है। तो मुस्लिम पक्ष को लगता है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच अगर वह एक बार झुक गये तो उन्हें हमेशा झुकना पड़ेगा और मेजोरिटी डेमोक्रेसी उनके लिये तानाशाही का सबब बन जायेगी, क्योंकि संख्या बल में कम होने की वजह से हमेशा उनकी हार होगी।
जस्टिस खान ने अकारण नहीं कहा है कि हमें वह काम दिया गया था, जिसे करने से फरिश्ते भी डरते। चारों तरफ बारूदी सुरंगें बिछी हैं और हमें हल निकालना था। उनका इशारा साफ है कि दोनों पक्षों के इस फाल्स कांशसनेस से तर्को के आधार पर नहीं निपटा जा सकता। एक दूसरे पर लंबे समय तक किया गया अविश्वास यूं नहीं मिटने वाला। और अगर ध्यान से देखें तो हाई कोर्ट का फैसला भी यही कहता है। उसने जमीन का फैसला किया ही नहीं है।
अदालत कह रही है कि दोनों भाइयों को यह समझना होगा कि दोनों को यहीं साथ-साथ रहना है, लिहाजा वह राम के अस्तित्व को भी मानती है और मस्जिद के लिये भी जमीन देती है। वह इशारा करती है कि जितनी जल्दी हो, यह सच्चाई गले उतर जाये तो बेहतर है कि हिंदू और मुसलमान दोनों में से कोई भी हिंदुस्तान छोड़ कर नहीं जाने वाला, और जब यहीं रहना है तो फिर एक दूसरे का सम्मान करते हुए क्यों न रहा जाये, सह-अस्तित्व के भाव से।
ऐसे में राम और मस्जिद पर झगड़ा क्यों? और कब तक? सुकून इस बात का है कि 18 साल बाद अब दोनों पक्षों की जुबान बदली है। जो भरोसा देती है कि दोनों ही सच्चाई समझने लगे हैं। इसलिये संघ कहता है कि हमें ऐसी कोई भी बात नहीं कहनी चाहिये कि किसी को ठेस लगे और मुस्लिम पक्ष मायूस तो है, लेकिन आक्रामक नहीं।
इस समझदारी के बीच अदालत ने दोनों पक्षों के लिये सुलह-सफाई के लिये रास्ता भी तय कर दिया है। एक अति सम्मानित कानूनविद के मुताबिक अदालती फैसले की मूल भावना को समझते हुए दोनों पक्ष मिल-बैठकर बातचीत के जरिये किसी समझौते पर पहुंचें। फिर लोकतंत्र में अदालत का फरमान न मानने का अर्थ है, बहुसंख्यक जनता की नाराजगी मोल लेना, संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाना, लोगों की नजरों में गिरना।
ऐसे में दोनों पक्ष इतिहास और अस्तित्व के संकट से निकल कर वर्तमान में सांस लें और किसी भी फार्मूले को स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटायें, साथ ही इस विवाद को हमेशा के लिये खत्म करें। यही वक्त की नजाकत है और इसीलिये अल्लामा इकबाल के हवाले से जस्टिस खान लिखते हैं कि न समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो।
-Ashutosh
लेखक आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडीटर हैं
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-140642.html
सीपीआई ने अयोध्या में रैली का आह्वान किया था। सी. राजेश्वर राव सीपीआई के जनरल सेक्रेटरी थे। मैं और सुहेल रैली में शामिल होने चल पड़े थे। रामजन्म भूमि के नाम पर संघ परिवार का उन्माद अपने उफान पर था। ट्रेन में कई बार मारपीट होते-होते बची थी। बचते-बचाते हम अयोध्या पहुंचे।
स्टेशन से उतर कर पैदल ही हम बाबरी मस्जिद की तरफ बढ़े। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, सुहेल के चेहरे की लकीरें बदलती जा रही थीं। अचानक एक मोड़ पर सुहेल रुका और बोला मैं अब आगे नहीं जाऊंगा। तुम चले जाओ। डर तो मुझे भी लग रहा था, पर मैं आगे बढ़ता गया। वहां इस बुजुर्ग से मुलाकात हुई।
बुजुर्ग की झुर्रियां मुझसे कह रह थीं कि राममंदिर मुद्दे ने किस तरह से एक तबके को झकझोर दिया था और सुहेल की लकीरें बता रही थीं कि इस धार्मिक उन्माद ने कैसे मुस्लिम तबके में डर और खौफ पैदा कर दिया था। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शक की एक मोटी दीवार खड़ी कर दी गयी थी।
एक तरफ से जितनी तेज हुंकार होती, दूसरी तरफ से उससे तेज आवाज में जवाब देने की कोशिश होती। यह असाधारण दौर था। तर्क और विवेक कहीं किसी काल-कोठरी में छिप गये थे। ऐसे में 30 सितंबर को जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आया और दोनों तरफ से कटु बातें नहीं हुईं तो मैंने चैन की सांस ली यानी अब साधारण माहौल में बात हो सकती है।
माहौल में इस बदलाव की गंभीरता को कुछ लोग अभी भी समझना नहीं चाहते हैं। इनको अदालत का फैसला पंचायती फैसला लगता है। और वह कहते हैं कि तथ्यों और साक्ष्यों से ज्यादा आस्था पर भरोसा किया गया है, जो खतरनाक है। पर क्या इस साधारण दौर में भी यह कहना विवेकसम्मत होगा कि वह जगह रामलला की नहीं है और उन्हें वहां से हटा देना चाहिये?
कानून की पेचीदगियों में फंसे लोगों को इस बात का अहसास ही नहीं है कि ऐसा करने का मतलब उस बुजुर्ग के लिये क्या होगा? और क्या महज जमीन के विवाद का नाम देकर फैसला हिंदू या मुसलमान के पक्ष में कर दिया जाता? जिसे हिंदू राममंदिर मान रहे हैं, वह वहां से बेदखल कर दिये जायें या फिर जो उसे मस्जिद कहते हैं, उनसे वो जमीन छीन कर हिंदुओं को दे दी जाती? क्या लोगों को अहसास है कि इससे सुहेल पर क्या असर होता और किस तरह की भावनाएं फिर भड़कतीं? शायद नहीं? पूरी जमीन किसी के भी पक्ष में जाती, दूसरा पक्ष अपने को ठगा हुआ महसूस करता और जाने-अनजाने उसे साजिश की बू आती।
कानून के जानकारों को समझना चाहिये कि यह मसला जमीन का होता तो कभी का निपट गया होता। यह मसला दोनों समुदायों के बीच आस्था का भी होता तो भी दोनों पक्षों के धर्मगुरु हल निकाल लेते। मसला इतिहास से बदला लेने और वर्तमान में अपने अस्तित्व को बचाये रखने का है।
एक पक्ष को लगता है कि इतिहास में मुस्लिमों ने हिंदुओं पर भारी जुल्म किये हैं और अब बदला लेने का वक्त है। तो मुस्लिम पक्ष को लगता है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच अगर वह एक बार झुक गये तो उन्हें हमेशा झुकना पड़ेगा और मेजोरिटी डेमोक्रेसी उनके लिये तानाशाही का सबब बन जायेगी, क्योंकि संख्या बल में कम होने की वजह से हमेशा उनकी हार होगी।
जस्टिस खान ने अकारण नहीं कहा है कि हमें वह काम दिया गया था, जिसे करने से फरिश्ते भी डरते। चारों तरफ बारूदी सुरंगें बिछी हैं और हमें हल निकालना था। उनका इशारा साफ है कि दोनों पक्षों के इस फाल्स कांशसनेस से तर्को के आधार पर नहीं निपटा जा सकता। एक दूसरे पर लंबे समय तक किया गया अविश्वास यूं नहीं मिटने वाला। और अगर ध्यान से देखें तो हाई कोर्ट का फैसला भी यही कहता है। उसने जमीन का फैसला किया ही नहीं है।
अदालत कह रही है कि दोनों भाइयों को यह समझना होगा कि दोनों को यहीं साथ-साथ रहना है, लिहाजा वह राम के अस्तित्व को भी मानती है और मस्जिद के लिये भी जमीन देती है। वह इशारा करती है कि जितनी जल्दी हो, यह सच्चाई गले उतर जाये तो बेहतर है कि हिंदू और मुसलमान दोनों में से कोई भी हिंदुस्तान छोड़ कर नहीं जाने वाला, और जब यहीं रहना है तो फिर एक दूसरे का सम्मान करते हुए क्यों न रहा जाये, सह-अस्तित्व के भाव से।
ऐसे में राम और मस्जिद पर झगड़ा क्यों? और कब तक? सुकून इस बात का है कि 18 साल बाद अब दोनों पक्षों की जुबान बदली है। जो भरोसा देती है कि दोनों ही सच्चाई समझने लगे हैं। इसलिये संघ कहता है कि हमें ऐसी कोई भी बात नहीं कहनी चाहिये कि किसी को ठेस लगे और मुस्लिम पक्ष मायूस तो है, लेकिन आक्रामक नहीं।
इस समझदारी के बीच अदालत ने दोनों पक्षों के लिये सुलह-सफाई के लिये रास्ता भी तय कर दिया है। एक अति सम्मानित कानूनविद के मुताबिक अदालती फैसले की मूल भावना को समझते हुए दोनों पक्ष मिल-बैठकर बातचीत के जरिये किसी समझौते पर पहुंचें। फिर लोकतंत्र में अदालत का फरमान न मानने का अर्थ है, बहुसंख्यक जनता की नाराजगी मोल लेना, संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाना, लोगों की नजरों में गिरना।
ऐसे में दोनों पक्ष इतिहास और अस्तित्व के संकट से निकल कर वर्तमान में सांस लें और किसी भी फार्मूले को स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटायें, साथ ही इस विवाद को हमेशा के लिये खत्म करें। यही वक्त की नजाकत है और इसीलिये अल्लामा इकबाल के हवाले से जस्टिस खान लिखते हैं कि न समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो।
-Ashutosh
लेखक आईबीएन-7 के मैनेजिंग एडीटर हैं
http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-140642.html
20 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी पोस्ट
समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो।
आज तो तथ्य उदघाटित हुआ…
"एक पक्ष को लगता है कि इतिहास में मुस्लिमों ने हिंदुओं पर भारी जुल्म किये हैं और अब बदला लेने का वक्त है। तो मुस्लिम पक्ष को लगता है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के बीच अगर वह एक बार झुक गये तो उन्हें हमेशा झुकना पड़ेगा और मेजोरिटी डेमोक्रेसी उनके लिये तानाशाही का सबब बन जायेगी, क्योंकि संख्या बल में कम होने की वजह से हमेशा उनकी हार होगी।"
"जब यहीं रहना है तो फिर एक दूसरे का सम्मान करते हुए क्यों न रहा जाये, सह-अस्तित्व के भाव से।"
"न समझोगे तो मिट जाओगे हिंदुस्तांवालो।"
सच तक पहूंचने का सार्थक प्रयास
saarthak lekh.
सच तक पहूंचने का सार्थक प्रयास
Ejaz जी मैं आपसे ओर सुज्ञ जी के विचारों से सहमत हूँ , बहुत ही अच्छी ओर सच्ची पोस्ट लिखी है आपने
अच्छा लेख
मामले की तह तक आप पहुच गए .
पर अगर मुस्लिम समुदाय ने यही समझदारी पहले दिखा कर हिन्दुओ की भावनाओ का सम्मान किया होता तो ये नौबत न आती.
आप की इस बात से मैं सहमत नही हू की हिन्दू बदला लेना चाहते थे . अगर ऐसा होता तो भारत में आज लोकतंत्र न होता .भारत एक हिन्दू राष्ट्र होता और राम जन्म भूमि के लिए आदालत का सहारा न लेते .
पूरे विश्व में हिन्दू ही है जो खुले दिल सब का स्वागत कर उन के अस्तित्व के रच्छा भी करते है .
जहा पारसियों धर्म न बदलने पर उन की ही जमीं से खदेड़ दिया गया .तो हिंदुस्तान की धरती ने खुले हाथो से उन का स्वागत किया .आप भी वे भारत में पारसी ही है और पूरी तरह सुरक्छित है .
मुस्लिम लीग ने प्रत्यछ कार्यवाही दिवस (16agu १९४६) मना कर हजारो हिन्दुओ को मार डाला और इसे एक झलक बता कर और बड़े नरसंघार की धमकी दी .जिस से अहिंसा के पुजारी बापू गाँधी तक घबरा गए और इस प्रकार हिन्दुओ की लाशो पर पाकिस्तान का निर्माण मजबूर कर के हुआ .
आज भी ये नारा "लड़ के लिया है पाकिस्तान , हँस के लेंगे हिंदुस्तान " आप सुन सकते है .
और जगहों की क्या कहे अभी कुछ दिन पहले पाकिस्तान जिन्दाबाद , हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे देश के विभिन्न हिस्सों में सुन सकते है
जब पाकिस्तान दे दिया उस के बाद भी हम अन्याय के प्रतीक बाबरी ढांचा को देखे और राम जन्म भूमि पर मंदिर भी न बना सके क्यों की मुस्लिम ऐसा नही चाहते .
अगर संघ ने अन्याय का प्रतिकार न किया होता तो वह अन्याय का प्रतीक आज भी हमें शर्मिंदा कर रहा होता और आज भी हम सिर्फ अन्याय सह रहे होते
nice post
@ अभिषेक जी !
रावण का मंदिर क्यों बना रहे हैं हिन्दू ?
(१) अन्याय का प्रतिक हटाने का बड़ा शौक़ है लेकिन अन्याय करने वालों पर आपने कभी ध्यान ही नहीं दिया राम चन्द्र जी जीवन भर अन्याय झेलते रहे जो उनकी पत्नी को उठा कर ले गया वे एक ब्रह्मण था उसे राक्षस कहा गया और पापी समझा गया मेरठ के पास उसकी ससुराल है वहां हिन्दू भाई रावण का मंदिर बना रहे हैं ।
हिन्दू राष्ट्र राम राज्य का अंत करने वाले के प्रति श्रद्धावान क्यों हैं ?
(२) राम राज्य एक आदर्श राज्य माना जाता है उसका अंत दुर्वासा नाम के एक ब्रह्मण ने किया उसी की वजह से पहले लक्ष्मण जी को और फिर श्री राम चन्द्र जी को अपने प्राण सरयू नदी में त्यागने पड़े जिसने ब्रह्मण ने यह घोर पाप किया उसे हिन्दुओं ने रावण की तरह राक्षस और पापी क्यों न माना ? उसके प्रति श्रद्धा रखने वालों को राम भक्तों ने क्यों न दुत्कारा ?
राम जन्म भूमि की तरह मंदिर क्यों न बनाया राम मरण भूमि पर ?
(३) महापुरुष जहाँ आपने प्राण त्यागते हैं उस जगह स्मारक बनाने की परम्परा दुनिया के हर देश में पाई जाती है , भारत में भी है लेकिन राम जन्म भूमि पर मंदिर बनाने के लिए खून बहाने वालों ने राम मरण भूमि पर मंदिर बनाना ज़रूरी नहीं समझा जोकि बिलकुल आसान है, यदि वे ऐसा करते तो दुनिया को पता चल जाता की राम राज्य का अंत करने वाले और भारत की तबाही के असली ज़िम्मेदार सदा से कौन हैं ?
पाक टेंशन का जन्म और उससे मुक्ति का उपाय
(४) नेहरु जिन्नाह टेंशन हिन्दू मुस्लिम टेंशन में बदल गयी. नेहरु भी आर्य था और जिन्नाह भी आर्य था , नेहरु का साथ देने वाले भी आर्य थे जो जिन्नाह के साथ खड़े थे वे भी आर्य थे, बटवारे के लिए आर्य पहले भी महाभारत लड़े थे और उनके वारिस, अब फिर आमने सामने खड़े थे, अब न नेहरु है न जिन्नाह है, लेकिन हिंद पाक टेंशन फिर भी ज़िन्दा है जब तक नफ़रत रहेगी पाक टेंशन भी रहेगी नफ़रत मिटाओ हाथ मिलाओ बिखरे टुकड़े साथ मिलाओ युक्ति कोई एसी बताओ, आपके पास न हो तो हम से ले जाओ, सारांश यह कि बात को घटाओ कोई ग़लती हो तो हमें समझाओ मालिक का नाम लो नमाज़ में आओ ।
very nice
very nice
@ Ezaz -
१. कुछ पागल तो वीरप्पन का भी मंदिर बनाए बैठे हैं , तो क्या वीरप्पन हिन्दुओं का प्रतीक हो गया? यह तो शासकीय तंत्र द्वारा ऐसे लोगो को जान बूझ कर बढावा दिया जा रहा है।
२. राम का शरीर त्यागना एक लौकिक क्रीडा थी और उसका लौकिक रूप हि तुमने सुना है।
३. मंदिर किसी के मृत्युस्थल पर बना हो मैने तो आज तक नही सुना, तुमने देखा सुना हो तो बताओ। और मुहम्मद के मर्ने की जगह पर कौन सी मस्जिद बनी है जरा जानकारी चाहिए।
४. पाक की अवधारणा जिन्ना के मुस्लिम लीग से जुडने से पहले की है। अतः यह नेहरु - जिन्ना के मध्य तनाव जितना छोटी बात नहीं है।
पाक टेंशन का इलाज तो पाक का खात्मा ही है।
रही बात तबाही मचाने वालों की तो उनके नाम पढ लोः-
मुहम्मद गोरी
ममूद गजनवी
कुतुबुद्दीन एबक
मुहम्मद तुगलक
बलबन
आरामशाह
तुल्तुलमिश
नसीरुद्दीन
बाबर
औरंगजेब
वाजिद अली शाह
तैमूर लंग
चंगेज खान
अहमद शाह अब्दाली
अलाउद्दीन खिलजी
अयोध्या फैसला भारतीय शक्ति का पुनर्जागरण है।
@ सुज्ञ जी !
आप किसी क्रियेटर को तो मानते नहीं लेकिन अवागमन को मानते हैं , ईश्वर,जोकि वास्तव में है उसे आप मानते नहीं और आवागमन,जोकि होता नहीं उसे आप मानते हैं. यह बड़ी दिलचस्प बात है सो इस पर जब भी बात होगी तो यकीनन दिलचस्प ही होगी चर्चा में आपका स्वागत है ।
@ पी सी गोदियाल जी !
राम मंदिर बनने पर हिन्दू भाई खुश हैं और हम उनके खुश होने पर खुश हैं, अयोध्या में भी हिन्दू मुसलमान खुश हैं और सारे देश में भी खुश हैं, फैसला क्या हुआ यह अहम् नहीं है अहम् बात यह है कि इतना बड़ा फैसला दोनों समुदायों ने शांति से सुना और सहजता से लिया, इस वाकये से हमारे अन्दर आत्मविश्वास पैदा हुआ दूरियां घटी नफरतें मिटी और प्रेम के अंकुर फूटे इस मुद्दे का समापन हो जाये इसके लिए दोनों समुदाय के ज़िम्मेदार लोग आपस में बातचीत कर रहे हैं. इस विषय पर उत्तेजित होना या उत्तेजित करना, व्यंग्य करना, उपहास करना, ग़ैर ज़िम्मेदारी की बात है . अयोध्या फ़ैसले पर हम खुश हैं यह जान कर आप भी खुश हो जाइये चर्चा के लिए अवागमन जैसे दार्शनिक मुद्दे बहुत हैं।
@ रविन्द्र नाथ जी !
आपने महाभारत के युद्ध में लड़कर भारतीय हिन्दुओं का भीषण संहार करने वाले राजाओं के नाम और लिख दिए होते तो आपकी बात का वज़न बढ़ जाता, साईं बाबा का मंदिर आपकी बात का जवाब है, देख लीजिये कहाँ बना है,? हिंद पाक टेंशन से पहले जिन्नाह कि तरह पांच पांडव भी दुर्योधन पर भारत का बटवारा करने का दबाव डाल रहे थे जिसे उस महान एकतावादी राजा ने नकार दिया था !
@एजाज: मैं महाभारत के पात्रों का नाम तो लिख देता पर उसके लिए मैं फिर से मथुरा का मंदिर मांगूगा, हाँ अगर कहो तो अपने बापों को मार कर गद्दी पर बैठने वालों के नाम दे दूँ।
रही बात पाण्डवों द्वारा बंटवारा की तो पाण्डवों ने तो अपने हक की जमीन मांगी थी जो कि उनको पूरी मिलनी चाहिए थी, कौरवों की हठधर्मिता को देखते हुए उनको यह प्रस्ताव दिया कि राज्य बांट लें, जैसे कि तीनो जजों ने माना है कि विवादित स्थल पर पहले मंदिर था, पर फिर भी एक पक्ष की हठधर्मिता को देखते हुए उसे भी १/३ हिस्सा दे दिया गया।
@एजाज जी ,
दुर्योधन एक महान एकतावादी राजा नहीं बल्कि एक दुष्ट ओर नीच प्रवर्ति का राजा था ,कृपया विलेन को हीरो ओर हीरो को विलेन समझने की भूल ना करें
महक
लेखक के लेख में लिखे हुए विचारों से पूर्णत सहमत. फैसला क्या आया, किसके हक में आया इसका पोस्टमार्टम करने से ज्यादा जरुरी ये देखना है की १९८९ से अब तक २१ साल में भारत कितना समझदार हुआ. ये फैसला अगर १९४० या पचास के दशक में आता तो फिर शायद कुछ लाख लोग धर्म के नाम पर बलि चढ जाते, १९८० या नब्बे के दशक में आता तो शायद मरने वालो का ये आंकड़ा कुछ हज़ार होता. हो सकता है फिर कोई गोधरा और गुजरात नरसंहार का नासूर उभर आता, जिसमे मरता केवल गरीब आदमी है, कभी कोई नेता नहीं मरता है. इस फैसले के बाद देश ने गजब के धैर्य का परिचय दिया है जो प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि वन्दनीय है. धर्म आस्था है, व्यक्तिगत विषय है और मुझे खुशी है कि आज देश में मेहनत से कमाई हुई दो जून की रोटी, धर्म के नाम पर बंटने और देश को बांटने वाली अफीम पर भारी पड़ी है. सार्थक लेख के लिए आपको बधाई.
Mr. Ejaz Ul Haq........
You are raising unreasonable questions to prove that Muslims are reasonable and Hindus are unreasonable. The kind of questions you're raising don't make any sense, don't solve any problems. Although your each question has a solid answer. But being a Muslim you just can't understand the resonablity of the answers of your questions. So there's no point in answering your questions.
If the people like Salim Khan, Tausif Hindustaani , Anwer Zamaal or you want to do for the society, please try to remove the evils of Muslim religion. Because of the teachings of Muslim religion, there are many problems in the world.
The burning problem is Islamic terrorism.
The reason behind this problem is the teachings of Islam. So please clean your home first and then others.
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