Saturday, October 30, 2010

PM to seek RBI’s views on Islamic banking     
इस्लामिक बैंक से सीख ले रिजर्व बैंक -PM

कुआलालंपुर। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि रिजर्व बैंक को मलयेशिया में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए। रिजर्व बैंक पर भारत में इस तरह की व्यवस्था शुरू करने का दबाव है। मालूम हो कि इस्लामिक बैंकिंग ब्याज मुक्त बैंकिंग व्यवस्था है।
यह पूछे जाने पर कि क्या भारत मलयेशिया में इस्लामिक बैंकिंग से कुछ सीख लेना चाहेगा मनमोहन ने कहा, इस्लामिक बैंकिंग के प्रयोग को लेकर समय-समय पर मांग उठती रही है। मैं निश्चित तौर पर रिजर्व बैंक से सिफारिश करूंगा कि मलयेशिया में इस संबंध में क्या हो रहा है, वह इस पर नजर डाले। मलयेशिया के दौरे पर कुआलालंपुर पहुंचे मनमोहन ने इससे पहले मलयेशियाई प्रधानमंत्री मोहम्मद नजीब तुन अब्दुल रज्जाक के साथ आर्थिक एवं रणनीतिक मामलों परविस्तृत बातचीत की।

अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पत्र )
ब्रहस्पतिवार, 28 ,अक्तूबर 2010

http://epaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20101028a_001107017&ileft=705&itop=586&zoomRatio=131&AN=20101028a_001107017

Monday, October 25, 2010

Women in man's world आधी आबादी, दूसरा दरजा - Ritu Saraswat

उन्नति के तमाम दावों के बावजूद हमारा देश महिलाओं को अवसर देने के मामले में पिछड़ा हुआ है। विश्व विकास मंच की लैंगिक समानता के संदर्भ में जारी हालिया रिपोर्ट से यह तसवीर उभर कर आई है। 134 देशों की सूची में भारत 112वें स्थान पर खड़ा है। यहां तक कि बांग्लादेश (82 वीं पायदान) में भी महिलाओं को हमारे देश की तुलना में कहीं ज्यादा बराबरी का दरजा हासिल है।

रिपोर्ट में चार आधारों पर महिलाओं की हालत का आकलन किया गया है। ये हैं - शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक ताकत। राष्ट्रपति के पद पर एक महिला के आसीन होने और पंचायतों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षण के चलते महिलाओं को जो राजनीतिक सबलता मिली है, उसी के आधार पर इस श्रेणी में भारत 23वें स्थान पर है, अन्यथा बाकी तीन श्रेणियों में स्थिति बदतर ही है। स्वास्थ्य के मामले में 132वां, आर्थिक भागीदारी में 128वां तथा शिक्षा में 120वां स्थान देश में महिलाओं की दोयम दरजे की नागरिकता को उजागर करता है।
भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है, जो स्पष्ट करता है कि महिलाएं मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में अपने यहां 540 की मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढांचागत कमियों की ओर इशारा करती है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मामलों में पुरुष और महिलाओं के बीच अंतर लगातार बना हुआ है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हर दिन बच्चे को जन्म देते समय या इससे जुड़ी वजहों से तीन सौ महिलाओं की मौत होती है। चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर पीठ थपथपाता देश, क्या इस सचाई को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएं न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि कई बार उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएं नौकरी पा भी गई हैं, वे शीर्ष पदों तक नहीं पहुंच पातीं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। ‘समान कार्य के समान वेतन’ की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में भी स्त्री और पुरुष श्रमिकों में भेदभाव किया जाता है। महिला आर्थिक गतिविधि दर (एफईएआर) भी केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह दर 72.4 प्रतिशत और नॉर्वे में 60.3 प्रतिशत है। वैश्विक आकलन से पता चलता है कि विश्व के कुल उत्पादन में करीब 160 खरब डॉलर का अदृश्य योगदान देखभाल (केयर) अर्थव्यवस्था से होता है और इसमें भारत की महिलाओं का मुद्रा में परिवर्तनीय और अदृश्य योगदान 110 खरब डॉलर का है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार समाज के आर्थिक वर्गों की गणना करते हुए ‘घरेलू महिलाओं’ को कैदियों, भिखारियों और यौनकर्मियों के समकक्ष रखा गया। स्वयं भारत सरकार द्वारा आर्थिक वर्गीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाना न केवल श्रम की गरिमा के प्रति घोर संवेदनहीनता का परिचायक है, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा भी है।
यह निर्विवाद सत्य है कि स्त्रियों की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है अगर वे ‘शिक्षित’ बनें, परंतु आज भी देश का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि शिक्षा से स्त्री का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री की सीमा घर की चारदीवारी ही है। नतीजतन शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों के 73 प्रतिशत की तुलना में लड़कियों का प्रतिशत मात्र 48 है।
क्या आज भी हमारी संकुचित मानसिकता महिलाओं को उनका अधिकार सहजता से देने को तैयार नहीं है? ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम आज के वैश्विक संदर्भ में समाज के उस मूलभूत ढांचे में परिवर्तन लाने का प्रयास करें, जिसमें महिला विकास के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर दिया गया है। तभी हम सच्चे अर्थों में लैंगिक समानता और विकास के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे। 
-ऋतु सारस्वत
 अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पत्र )
मंगलवार, 26 , अक्तूबर, 2010 

Thursday, October 21, 2010

Moral duties of a muslim ऐ मुसलमानों ! अपने पड़ोसी के हक़ अदा करो - Prem sandes

 इस्लाम में पडोसी का पूरा खयाल रखने,उसके सुख दुख में भागीदार बनने और किसी भी तरह उसको दुख न पहुचाने की सख्त ताकीद की गई है। पडोस से बेपरवाह व्यक्ति को उसकी जिम्मेदारी का एहसास कराकर बताया गया है कि एक पडोसी के रूप में उसकी क्या-क्या जिम्मेदारियां हैं। पडोसी चाहे किसी भी मजहब का मानने वाला हो ,उसके प्रति ये पूरे हक अदा किए जाने चाहिए।
कुरआन और हदीस में पडोसियों के साथ अच्छे बर्ताव के हुक्म दिए गए हैं। इस्लाम के आखरी पैगम्बर मुहम्मद सल्लललाहो अलैहेवसल्लम ने फरमाया-जिसकी तकलीफों और शरारतों से पडोसी सुरक्षित नहीं,वह ईमानवाला नहीं है।पडोसी के साथ जुडाव लगाव और उसका हमदर्द बनने पर कितना जोर दिया गया है,इसका अंदाजा पैगम्बर की इस बात से होता है-पैगम्बर कहते हैं-’अल्लाह जिबी्रल फरिशते के जरिए मुझे पडोसी के बारे में बराबर ताकीद करते रहे,यहां तक कि मुझे खयाल होने लगा कि पडोसी को सम्पति का वारिस बना देंगे।‘ पडोसी का हर मामले में खयाल रखने पर जोर दिया गया है।खाने-पीने की चीजों में भी पडोसी को शामिल करने का हुक्म दिया गया है। हुजूर ने फरमाया-जो शख्स खुद पेट भरकर सोया और उसका पडोसी उसके पडोस में भूखा पडा रहा वह मुझ पर ईमान नहीं लाया।
इस्लाम में नमाज,रोजा,जकात आदि इबादतों के जरिए कर्मों को सुधारकर इंसानी भाईचारे,इंसानियत और इंसाफ पर जोर दिया गया है। नमाज,रोजा ,जकात को साधन और इनके असर से होने वाले अच्छे अमल को साध्य माना गया हैै। पडोसी के साथ अच्छे अमल के इस उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है- एक आदमी ने पैगम्बर मुहम्मद साहब से कहा कि फलां औरत नमाज पढती है,रोजे उपवास रखती है, खैरात गरीबों को मदद देती है लेकिन पडोसियों को गलत जुबानी से सताती रहती है। पैगम्बर ने कहा ऐसी औरत जहन्नुम में जाएगी। इसी तरह एक दूसरी औरत के बारे में उनसे कहा गया उसकी नमाज,रोजा कम है,खैरात भी कम देती है लेकिन उसके पडोसी इससे महफूज है। पैगम्बर ने कहा-वह औरत जन्नत में जाएगी। एक मौके पर मुहम्मद साहब ने कहा-पडोसी का बच्चा घर आ जाए तो उसके हाथ में कुछ न कुछ दो कि इससे मोहब्बत बढेगी। पडोसी का पडोसी से रिश्ता अच्छा और मजबूत बनाने के मकसद से कई हिदायतें दी गईं। हिदायत दी गई है कि पडोसी किसी भी तरह अपने पडोसी पर जुल्म न करे।
पैगम्बर साहब ने फरमाया-जिसने पडोसी को सताया उसने मेरे को सताया और जिसने मेरे को सताया उसने खुदा को सताया। इन सब बातों से जाहिर है कि कैसे पडोसी से पडोसी के रिश्ता को मजबूत करने की कोशिश की गई है । इसके पीछे मकसद है विशव बन्धुत्व की भावना को बढावा देना। क्योंकि भौगोलिक आधार पर देखा जाए तो सबसे छोटी इकाई पडोस ही है। पडोसों में भाईचारा होगा तो बस्ती या इलाके में भाईचारा होगा और फिर यह भाईचारा कस्बे,शहर,राज्य,देश से बढते-बढते बढेगा विशव बन्धुत्व की ओर।
साभार- हमारी अंजुमन

Tuesday, October 19, 2010

A question to so called nationalists क्या कृषण जन्म भूमि की वैल्यू कम है राम जन्म भूमि से ? - Ejaz

@ आदरणीय पी.सी.गोदियाल जी !
मैंने जानना चाहा था कि आपने दूसरे ब्लोगर्स के कमेंट्स को 'उलटी और दस्त' क्यों कहा है ?, भारतीय संस्कृति तो संस्कार सिखाती है  अहंकार नहीं. आप आये और मुझे राष्ट्रवाद की नसीहत करके चले गए लेकिन मेरे सवाल का जवाब आपने नहीं दिया. मैं अभी तक अपने सवाल के जवाब का मुन्तज़िर हूँ .
आपके ' राष्ट्रवाद अपनाने की सलाह' के बारे में मुझे यह कहना है कि-

1 . राष्ट्रवाद पर हम ईमान तो ले आते लेकिन राष्ट्रवादियों जैसे काम हम कर नहीं सकते, राष्ट्रवादी बहुत अरसे से कह रहे हैं कि यदि मुसलमान बाबरी मस्जिद पर से अपना दावा छोड़ दें तो काशी और बनारस की मस्जिदों पर से हम अपना दावा छोड़ देंगे। (?)
बनारस और काशी की मस्जिदों पर से दावा क्यों छोड़ देंगे ?
क्या कृषण जन्म भूमि की वैल्यू कम है राम जन्म भूमि से ?
या फिर शिव जी की वैल्यू कम है राम चन्द्र जी से ?
और किस ने हक़ दिया सत्ता के इन दलालों को अपने देव मंदिरों की सौदेबाज़ी करने का ?
अपने राष्ट्रगौरव के प्रतिक पुरुषों के स्थानों की सौदेबाज़ी करने वाले तथाकथित राष्ट्रवादियों के चिंतन को हम स्वीकार कैसे कर सकते हैं ?
आज यह अपने देवता और अपने समाज को धोखा दे रहे हैं, और कल यह हमें भी देंगे, अगर हम इनके पीछे चले तो.
2 . सह अस्तित्व के लिए मौलाना हुसैन अहमद मदनी का आदर्श काफ़ी है, वे एक मुस्लमान थे लेकिन देश के विभाजन के खिलाफ़ थे. जबकि बहुत काल पहले पांडव देश के विभाजन की मांग कर चुके हैं और वे मुस्लमान नहीं थे . ज़मीन का बटवारा रोक देना राष्ट्रवाद के बस का नहीं है. यह तो तभी रुकेगा जब भाई और भाई के बीच प्यार बढ़ेगा,आप हमारे भाई हैं इस में कुछ शक नहीं है और हम दोनों का मालिक भी एक ही है इसमें भी कुछ शक नहीं है. जिसमे कुछ शक न हो उसमें तो आप यक़ीन कीजिये बस यही है मेरा प्रेम संदेस.

Namaz for unity आदरणीय भाई पी.सी.गोदियाल जी ! क्या हिन्दू भी नमाज़ अदा कर सकते हैं सदभावना की मिसाल कायम करने के लिए ? Ejaz

@ पी.सी.गोदियाल जी !
आपने हकनामा ब्लॉग पर दूसरे ब्लोगर्स के कमेंट्स को उलटी दस्त की उपमा दी है जोकि सरासर अनुचित है और आपके अहंकार का प्रतीक भी अहंकार से और अशिष्ट व्यवहार से दोनों से ही रोकती है भारतीय संस्कृति जिसका झंडा आप लेकर चलने का दावा करते है, मुझे लगता है कि आपका दावा सच नहीं है 
सारे झगड़ों की जड़ अज्ञानता है बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले बाबर के ख़िलाफ़ नफरत में भरे हुए थे इसीलिए उन्होंने मस्जिद तोड़ दी जबकि मस्जिद में उसकी पूजा होती है जिसने खुद रामभक्तों को पैदा किया. जीवन एक परीक्षा है कि कौन मालिक का बंदा  है और मालिक से और उसके  हुक्मों से लापरवाह और अनजान हैं, रामभक्तों की तरह मुसलमानों में भी बहुत लोग हिन्दुओं से नफ़रत करते हैं या फिर तौहीद के इल्म से भी कोरे हैं जैसे कि हाशिम अंसारी साहब और उनके साथ नज़र आने वाले तथाकथित मुस्लिम धर्मगुरु. इसी अज्ञान की वजह से उन्होंने सरयू नदी की पूजा की लेकिन जब कर ही ली तो मालिक ने हिन्दुओं के सामने एक परीक्षा खड़ी कर दी  कि क्या हिन्दू भी नमाज़ अदा कर सकते हैं सदभावना की मिसाल कायम करने के लिए ? सदभावना क़ायम करने के लिए सत्य की भावना ज़रूरी है. सत्य है परमेश्वर और जो परमेश्वर न हो उसे एक परमेश्वर की ही उपासना करना चाहिए. यानि कि हम सब को एक ईश्वर के प्रति ही समर्पित रहना चाहिए क्योंकि परमेश्वर ही उसका आधार है इस के जानने का नाम 'ज्ञान' है. ज्ञान आयेगा तो प्रेम खुद साथ लायेगा और तब मिटेगी भेद की दीवार और ऊंची उठेगी इज्ज़त की मीनार दिल से निकालो दिरहम दीनार यही है बस मेरी पुकार.
अयोद्धया में हिन्दू मुस्लिम धर्मगुरुओं ने मिलकर की सरयू की पूजा. क्यों की ? यह तो वही बताएँगे, आप देखना चाहें तो देख लीजिये यहाँ पर

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अमर उजाला ब्यूरो
अयोध्या। रामनगरी में बाबरी मसजिद के मुद्दई हाशिम अंसारी, गुजरात से आए मुसलिम और संतों ने सरयू तट पर आपसी एकता व सौहार्द बनाए रखने का संकल्प लिया। मंगलवार को वैदिक मंत्रोच्चार के बीच पतित पावनी सरयू में दुग्ध अर्पित कर सभी लोगों ने देशवासियों को अमन का पैगाम देने की कोशिश की।
हाशिम अंसारी ने कहा कि समाधान की राह शीघ्र निकलेगी, लेकिन इस राह में सियासी लोगों को जगह नहीं बनाने देंगे। उनका कहना था कि सियासत से अलग होकर मंदिर-मसजिद की हिफाजत करेंगे। कहा कि अब इस मसले का अंतिम समाधान होना चाहिए। यह समाधान सर्वमान्य हो यह महत्वपूर्ण है। हम आपस में लड़ते रहेंगे, तो देश व समाज का बड़ा नुकसान होगा। बाहरी ताकतें तो चाह ही रहीं हैं कि हम आपस में लड़ें।
सरयू तट से हिंदू-मुसलिम-सिख-इसाई का जो नारा बुलंद किया गया, इसका संदेश अयोध्या से पूरे विश्व में जाएगा।
गुजरात के खेड़ा से आए मानव धर्म के प्रचारक व खानका इमाम शाही सैय्यद मेंहदी हुसैन, सैय्यद जाहिद अली हैदर अली व मुरताज मेंहदी, महंत अवध राम दास, खुनखुन महाराज, महंत प्रह्लाद शरण, बाबा भूतनाथ, हरदयाल शास्त्री, सियाराम शरण, म. मनमहेश दास ने कहा कि सरयू तट से शांति का संदेश दिया गया है।
नृत्य गोपाल, वेदांती से की सिंहल ने भेंट
अयोध्या। रामजन्म भूमि विवाद का आंकलन करने विहिप सुप्रीमो अशोक सिंहल अपराह्न कारसेवकपुरम पहुंचे। सांय पांच बजे उन्होंने रामजन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास व न्यास के वरिष्ठ सदस्य डा. रामविलास दास वेंदाती से कारसेवकपुरम में ही भेंट की। मुलाकात को मीडिया से दूर रखा गया।
सूत्रों के अनुसार विहिप सुप्रीमो ने समझौते की कोशिशों का परिणाम देख लेने में कोई हर्ज नहीं बताया। शिथिल नजर आए 85 वर्षीय सिंहल कारसेवकपुरम में ही रहे। न केवल शीर्ष धर्माचार्यों को उनसे मिलने कारसेवकपुरम आना पड़ा बल्कि वे उन रामलला का दर्शन करने भी नहीं जा सके, जिनके लिए उनका राष्ट्रव्यापी आंदोलन रहा। विहिप के प्रांतीय मीडिया प्रभारी शरद शर्मा ने बताया कि उनकी यह यात्रा अनौपचारिक है और दिल्ली से इलाहाबाद लौटते हुए यहां पहुंचे सिंहल बुधवार को अपराह्न इलाहाबाद के लिए रवाना हो जाएंगे।


Sunday, October 17, 2010

A love letter मेरा 'प्रेम संदेस' - Ejaz

सब्र करने वालों के साथ अल्लाह है, और जिनके साथ अल्लाह है उनको और चाहिए क्या ?
जो लोग ख़ुदा को पाना चाहते हैं वे आज़माइश के वक़्त सब्र करना सीखें और सब्र का मतलब है डटे रहना अपने फ़र्ज़ पर.
अपना फ़र्ज़ अदा कीजिये लोगों को सही ग़लत और न्याय अन्याय का ज्ञान दीजिये. अच्छे बुरा कर्मों का अंजाम बताइए.
जब लोग जागेंगे तब लोग मानेगे. जब समाज सीधे मार्ग पर जायेगा तो वे कल्याण पा जायेगा. और तब आपको भी मिलेगा न्याय बल्कि न्याय से भी ज्यादा जो आप पाना चाहते है समाज से वह पाने के लिए आपको बनाना होगा एक नया समाज सत्य और न्याय के मार्ग पर चलने वाला समाज यही आपका फ़र्ज़ है. इसके लिए सबसे पहले आपको खुद चलना होगा सत्य और न्याय पर, हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) के आदर्श पर जिसका इक़रार एक मुस्लिम करता है कलमा, अज़ान और नमाज़ में. अगर आप ऐसा नहीं करते तो आप ज़ुल्म करते हैं ख़ुद पर भी और समाज पर भी, और ज़ालिम को बदले समाज से क्या मिलेगा सिवाय ज़ुल्म के. ज़ुल्म को मिटादो न्याय क़ायम करो, शांति लाओ, कल्याण पाओ, उद्धार पाओ और यह सब मिलेगा इसी दुनिया में बस आप को चलना होगा ख़ुदा के हुक्म पर. आपको सत्य की गवाही देनी होगी अपने कर्म से और वे भी सामूहिक रूप से देनी होगी. इसी से खातमा होगा फिरकेबंदी का और इसी से जायगी मोमिनों की कमज़ोरी, तब मोमिन होगा बलवान और बलवान से बलाएँ रहती हैं सदा दूर. तो बलवान बनिए, सबसे बड़ा बलवान है एक परमेश्वर उसकी की शरण में आइये जो चाहते हैं आपको मिलेगा, लेकिन उसके नियमों पर चलिए तो सही उसके नियमों का नाम है धर्म, धर्म अब केवल इस्लाम है. बल्कि जब कभी धर्म का नाम कुछ और था तब भी इस्लाम ही था और परमेश्वर भी यही एक था. इसी को जानने का नाम 'ज्ञान' है. इसी ज्ञान से पैदा होता है प्रेम और यही मेरा 'प्रेम संदेस'. 

Friday, October 15, 2010

Masjid manegment in a Hindu's Hand - हिन्दू ने एक दशक तक किया जामा मस्जिद का प्रबंधन -Ejaz

अयोध्या के राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले पर जहां पूरे देश की निगाह लगी है, वहीं बुढ़ाना की जामा मस्जिद सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करती है। इस ऐतिहासिक मस्जिद का प्रबंधन एक दशक तक हिन्दू ने किया है। इस मस्जिद में हिन्दुओं और मुसलमानों ने अरबी और फारसी की शिक्षा भी एकसाथ प्राप्त की है।

बुढ़ाना कस्बा हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक मिसाल है। एक दूसरे के त्योहारों, सुख-दुख में शरीक होने का सिलसिला यहां परंपरा के तौर पर आगे बढ़ रहा है। इतना ही नहीं यहां की ऐतिहासिक जामा मस्जिद के प्रबंधन का निर्वहन एक दशक तक हकीम श्रीकृष्ण शर्मा ने किया। इस मस्जिद का निर्माण 323 वर्ष पूर्व मुगल शासक औरंगजेब के शासन में कराया गया था। यह मस्जिद उस समय अरबी और फारसी शिक्षा का मुख्य केंद्र थी। मस्जिद के रिकॉर्ड के अनुसार इसमें हाफिज अब्दुल्ला उस्मानी दोनों संप्रदाय के लोगों को शिक्षा देते थे। यहां राव दीवान सिंह के वंशज नंबरदार अतर सिंह त्यागी ने भी शिक्षा प्राप्त की थी। वर्ष 1920 में अंग्रेजों के विरुद्ध चला खिलाफत तहरीक का दफ्तर भी जामा मस्जिद में स्थापित किया गया था। 
बताया गया है कि एक बार अंग्रेजी शासनकाल में गोकशी को लेकर विवाद पैदा हो गया था। अंग्रेज कलेक्टर ने दोनों संप्रदायों के लोगों को बुलाकर हकीकत जानकर फैसला करना चाहा, तो हिन्दू संप्रदाय के लोगों ने उनका फैसला रोककर हाफिज अब्दुल समी के ऊपर मामला छोड़ दिया। इस पर हाफिज अब्दुल ने कलेक्टर को लिखित में दिया कि यहां कभी गोकशी नहीं हुई, न आगे होगी। मैं चाहता हूं कि दो भाइयों के दिलों में दरार पैदा करने वाला यह कार्य नहीं होना चाहिए। उस समय ही दोनों संप्रदाय के लोगों में तय हुआ था कि श्री हरनंदेश्वर धाम मंदिर के निकट नदी में कोई मछली का शिकार नहीं करेगा। इस परंपरा पर अभी तक अमल किया जा रहा है। बुढ़ाना के हिन्दू-मुस्लिम प्रेम की मिसाल आसपास के कस्बों में भी दी जाती रही है। आपसी मतभेद यहां आपस में बैठकर सुलझाये जाते हैं।

-अहसान कुरैशी बुढ़ाना (मुजफ्फरनगर)

http://www.livehindustan.com/news/location/rajwarkhabre/248-0-139897.html&locatiopnvalue=17

Tuesday, October 12, 2010

who will give the ideal concept of Dharma for society ? तारकेश्वर गिरी जी ! समाज बदलता रहता है क्या धर्म भी बदलता रहता है ? - Ejaz

हिमाचल और कश्मीर से घट कर नहीं हैं आप
@ सुज्ञ जी !
आपके निर्मल हृदय से निकले उदगार,
देख, अच्छा लगा, आभार,
१. तीर्थंकरों की वाणियों में विरोधाभास नहीं है और वे आपके पास सरंक्षित भी हैं . इतना बड़ा खज़ाना आप दबाये बैठे हैं कम से कम हमें देते न तो दिखा ही देते. मानव कल्याण के लिए इतना फ़र्ज़ तो आपका बनता ही है ?
२. आपके आने से हमारी सभा में ताज़गी और रवानी आती है, इसलिए आपका हम स्वागत सदा करते हैं. अरुणाचल और कश्मीर से भी ज़्यादा बढ़कर आप अखंड हिस्सा हैं हमारे बौधिक परिवार का. आप आइये हमारे ब्लॉग पर, हमारे घर में, स्वर्ग में , और उससे पहले आप बने हुए ही हैं हमारे दिल में ।
 Most Welcome
भारतीय संस्कृति मानती है कि मौत का समय निश्चित है
@ रविंदर जी !
१. आपकी बात से पता चला कि आपको कुरआन के प्रति मोह था ही नहीं बल्कि मात्र जिज्ञासा थी जो पूर्वाग्रह की वजह से गुमराही में बदल गयी ।  इसके निराकरण के लिए स्वामी जी से जल्दी मिलिये ।
२. किस देवी का अपमान कर दिया डा. साहब ने बताएं ?
३. आपने कहा कि डा. साहब गाँव में रहते हैं, और भारत की आत्मा भी गांव में ही बस्ती है। जहाँ आत्मा है वहीं परमात्मा भी है, तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि डा. साहब परमात्मा तक पहुँचने का साधन हैं ?
४. भारतीय संस्कृति मानती है कि मौत का समय निश्चित है डा. आदि तो मात्र ज़रिया हैं .जिसकी मौत नहीं आई उसे तो अर्जुन भी न मार पाये, क्या यह बात सही है ?
हो सकता है कि आप कोई ईसाई पंडत हो ?
@ भगवत प्रसाद मिश्रा जी !
१. हमने सुना है कि मनु स्मृति के अनुसार यदि कोई शुद्र किसी ब्रह्मण को उपदेश करे तो उसकी ज़बान काट ली जाये, ऐसा कहा गया है,  इस डर के कारण किसी कि हिम्मत नहीं पढ़ रही होगी ।

२. आपका प्रोफाइल भी फ्रॉड लोगों जैसा है बल्कि है ही नहीं. हो सकता है कि आप कोई ईसाई पंडत हो ? कुमारम भी राकेश जी के मुंह से 'पीने' चले गये ? शायद दोनों के मुंह एक हैं या  दोनों में नाम मात्र का ही भेद है ?
सुधरने के लिए आदर्श शिक्षा कौन देगा बताइए ? 
@ तारकेश्वर गिरी जी !
१. समाज बदलता  रहता है क्या धर्म भी बदलता रहता है ?
२. सुधरने के लिए आदर्श शिक्षा कौन देगा बताइए ? 

Monday, October 11, 2010

In search of the truth सच का नश्तर - Ejaz

लेखक  - योगेंद्र यादव 
आपका दोस्त इस घड़ी में भी फच्चर लगाने से बाज नहीं आया। यह शिकायत मेरे बारे में थी और मुझे ही सुनाई जा रही थी। संदर्भ 30 सितंबर की शाम का था। सभी न्यूज चैनलों पर उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत हो रहा था। बीती को भुलाकर अब आगे बढ़ने का आह्वान हो रहा था। लेकिन मुझ जैसे कुछ लोग ‘मैं न मानूं’ का राग अलाप कर टीवी स्टूडियो का माहौल बिगाड़ने पर तुले थे। यह पूछा जा रहा था कि मेरे जैसे लोग रंग में भंग क्यों डालते हैं।
मैं पलटवार कर सकता था। ऐसे लोगों को याद दिला सकता था कि रथयात्रा के दौरान यही आडवाणी जी कहते थे कि आस्था का मामला किसी भी कोर्ट-कचहरी से ऊपर है। मैं पूछ सकता था कि न्यायालय के निर्णय के प्रति इतनी श्रद्धा कब से पैदा हुई? कहां गई थी यह श्रद्धा छह दिसंबर, 1992 को, जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं? फिर मैंने सोचा कि दूसरे चाहे जो भी करें, कम से कम मुझ जैसे लोगों को अदालत का सम्मान करना चाहिए।
मैं कई कानूनी तर्क गिना सकता था। पिछले दस दिनों में कई पूर्व न्यायाधीशों और कानूनविदों ने तमाम सवाल पूछे हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है। मिल्कियत का फैसला करने के बजाय संपत्ति के बंटवारे की बात कहां से आई? अगर वक्फ बोर्ड का दावा गलत है, तो उसे एक-तिहाई हिस्सा भी क्यों दिया गया? आस्था का एहसास यकायक मिल्कियत का दावा कैसे बन जाता है?
इस बीच पिताजी का फोन आता है। मैं उन्हें यह सब कानूनी तर्क तफसील से समझाता हूं। जीवन भर ‘न हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा’ के सेक्यूलर विचार में आस्था रखने वाले पिताजी ने आखिर में कहा, बेटा, किसी न किसी को तो इस झगड़े को खत्म करना था। कोर्ट ने कम-से-कम एक रास्ता तो दिखाया है। अब बस हिंदू-मुसलमान इसे मान लें और इस झगड़े को खत्म करें। अब ध्यान इस पर दें कि आगे से ऐसा फसाद इस देश में फिर कभी न हो। उनकी बात से मुझे वह शिकायत समझ में आई, जिसका जिक्र शुरू में किया गया है। सच तो यह है कि अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से आम लोगों ने राहत की सांस ली है। हिंदुओं और मुसलमानों का बहुमत आज यह चाहता है कि इस फैसले की ज्यादा चीर-फाड़ न की जाए। अगर कुछ तकनीकी गड़बड़ी है भी, तो उसे ढका रहने दिया जाए। बस अब इस मामले को रफा-दफा किया जाए।
दरअसल मुझे इसी मानसिकता से ऐतराज है। अयोध्या विवाद ने इस देश का मन तोड़ा है। लाखों-करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों के मन में जहर घोला है, बैर के बीज बोए हैं। ऐसे गहरे जख्म ऊपरी पोचा-पट्टी से भर नहीं जाएंगे। आज हम अपना मन भले ही बहला लें कि यह फोड़ा हमारी आंखों से ओझल हो गया है, लेकिन इलाज किए बिना यह फोड़ा नासूर बन सकता है। एक दिन यह ऐसी शक्ल में फूट सकता है, जो पहले से भी ज्यादा खौफनाक हो। इस सिलसिले में हमें दक्षिण अफ्रीका के ट्रुथ ऐंड रेकोन्सिलिएशन आयोग के अनुभव से सीखने की जरूरत है। समाज के गहरे जख्म को भरने के लिए सच के नश्तर की जरूरत है, ताकि बरसों से पड़ा मवाद बाहर निकल सके और दवा-मलहम अपना काम कर सकें।
अयोध्या विवाद से टूटे दिलों को जोड़ना है, तो सबसे पहले सच बोलने की हिम्मत करनी होगी। सच यह है कि जहां आज रामलला विराजमान हैं, वह सैकड़ों वर्षों से मुसलिम धर्मावलंबियों की आस्था का भी केंद्र था। यह भी सच है कि बहुत लंबे अरसे से वहां के हिंदुओं की आस्था रही है कि वह राम जन्मभूमि है। इस पुराने झगड़े का हिंदू-मुसलमानों ने अपने तरीके से हल निकाल रखा था। गुंबद वाली जगह पर मुसलमान नमाज अता करते थे, तो चबूतरे पर हिंदू आरती करते थे। सच का सबसे कड़वा पहलू यह है कि विभाजन के बाद से कम से कम तीन बार (पहले 1949 में, फिर 1986 और अंत में 1992 में) प्रशासन की मिलीभगत का फायदा उठाकर अल्पसंख्यकों की आस्था को चोट पहुंचाने का काम किया गया। बहुसंख्यक समाज की धार्मिक आस्था को बचाने के लिए संविधान को दांव पर लगा दिया गया। इस सच को स्वीकार किए बिना अयोध्या मामले में कोई मध्यस्थता टिकाऊ नहीं हो सकती।
अयोध्या मसले पर उच्च न्यायालय के फैसले से मेरा असली ऐतराज यह नहीं है कि उसका बंटवारा सही नहीं है या कि उसके कानूनी तर्क नाकाफी हैं। मेरी परेशानी दरअसल यह है कि सच इस फैसले से गुम हो गया है। मेरी पीड़ा यह है कि यह फैसला उन आंखों के आंसू नहीं पोंछता, जो छह दिसंबर, 1992 को भीगी थी (इनमें इस लेखक की दो आंखें भी शामिल हैं)। ठगे गए लोगों से आज उदारता की मांग की जा रही है। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय के पास जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उम्मीद करनी चाहिए कि न्याय के सबसे ऊंचे पायदान पर सच बोलने में किफायत बरतने की मजबूरी नहीं होगी। मुसलमान को यह भरोसा होगा कि उसे इस देश में महज किरायेदार नहीं समझा जाता। एक बार सच को स्वीकार कर लिया जाएगा, तो जमीन के बंटवारे के एक नहीं, बल्कि अनेक रास्ते खुल जाएंगे। अगर उसके बाद भी मुसलमानों की राजनीति करने वाले ठेकेदार नहीं मानेंगे, तो खुद मुसलमान ही उनसे निपट लेंगे।
यह लेख लिखते वक्त चंदन भाई का फोन आया। वह बोले, अंगरेजी के रेकोन्सिलिएशन का सही हिंदी अनुवाद ‘मन-मेल’ होना चाहिए। वह यह भी बोले कि मन-मेल के लिए पहले मन का मैल निकलना जरूरी है। मुझे लगा कि यह बात कहीं न कहीं रामचरितमानस से जुड़ती है।

 http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarDetail.aspx?nid=219&tp=b&Secid=4&SubSecid=10
अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पात्र )
सोमवार ,11 अक्तूबर 2010

Saturday, October 09, 2010

A Dialogue Between Hindu, Muslim,Christian and Jain - 'इरफ़ान' मिल जाये, मार्ग मिल जाय तो इन्सान का जन्म सफल होजाता है, - Ejaz

@ राकेश लाल जी !
आप ने पहले लिखा था कि:-
मसीहा बिचवई है:-
सूरेःमरियमः 1967-70 आयत मे कुरान स्वयं कहती है या गवाही देती है कि हर एक मुसलमान और जिन्न और गुनहगार जहन्नम मे झोंका जायेगा और अल्लाह दोजख मे से धीरे धीरे उनके कामों के अनुसार निकालेगा और जिन्नो को और लोंगों को नरक मे घुटने के बल डालेगा। कुरान स्वयं बताती है और कहती है कि सब को नरक में जाना है

अब आप ने कुरआन खोल कर देखा तो आपको सूरए मरियम में यह आयात ही नहीं मिली इसीलिए अब आप यह कहने  पर मजबूर हैं कि:
सूरए मरियम
और तुममे से कोई ऐसा नहीं जो जहन्नुम पर से होकर गुज़रे (क्योंकि पुल सिरात उसी पर है) ये तुम्हारे परवरदिगार पर हेतेमी और लाज़मी (वायदा) है
(71 )
कमेन्ट - जहन्नम के ऊपर से गुज़रने का मतलब "गुज़रना" होता है, जहन्नम में डाला जाना नहीं होता
आप ने कहा कि :
खुदावन्द यीशू मसीह की महानता
कुरान मजीद का अध्ययन करने से यह पता लगता है कि प्रभू यीशू मसीह बहुत महान
हैं।
कमेन्ट- यहाँ आप ने साफ़ अल्फाज़ में खुदा के नबी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को खुदा कहा है फिर अपने कहे हुए से पीछे क्यों हट रहे हैं मिस्टर?
बेशक हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम महान हैं और उन्हें कभी शैतान ने नहीं छुआ कुरआन यही बताता है , उसके बावजूद भी आप कुरआन को और उसके नियमों को क्यों नहीं मानते? इंजील की उस मिलावटी बात को सच क्यों मानते हो? जिसमें कहा गया है " फिर शैतान यीशु को एक बहुत ऊँचे पहाड़ पर ले गया मत्ती (4 ,8 ) हमें बताया गया है कि शैतान तो उस इलाके से भी भाग जाता है जहाँ तक मसीह की नज़र पहुँचती है फिर यह कैसे संभव है कि शैतान मसीह को कहीं ले जाय और मसीह शैतान के पीछे- पीछे चले जाएँ ?
आपने लिखा है कि " दुनिया में बहुत सारे ईश्वर हैं"
कमेन्ट- कृपया इसके समर्थन में आप कुरआन या इंजील में से प्रमाण दीजिये, अगर आपने इन दोनों को या इन दोनों में से किसी एक को भी पढ़ा हो तो ?
आप ने दावा किया, अब आपको दलील भी देनी पड़ेगी। आपको बताना पड़ेगा जो आपसे पूछा जायगा, आपसे पूछा गया है कि
1-आप की बाइबिल में किताबों की संख्या रोमन केथोलिक की बाइबिल से कम हैं या बराबर ?
2- क्या आप " ओरिजिनल सिन" में विश्वास रखते हैं और मासूम बच्चों को पाप से जन्मजात तौर पर ही कलंकित मानते हैं.
 
आप बात को गोलमोल मत कीजिये सीधे -सीधे पिछली पोस्ट्स पर उठाये गए सवालों के जवाब दीजिये, आपसे कोई नाराज़ है ही आपको माफ़ी मांगने की ही ज़रुरत है, हम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को प्यार करते हैं और उनसे प्यार करने वाले आप जैसे लोगों से भी प्यार करते हैं, आप जो कुछ कहना चाहें हम सुनने के लिए तैयार हैं लेकिन हमारे सवालों का आपको सटीक उत्तर देना होगा
धर्म और दर्शन में मूल अंतर
@ सुज्ञ जी !
दर्शन रचने वाले आदमी की द्रष्टि और ज्ञान सिमित होता है यह दार्शनिक केवल अपनी या अपने सिमित अनुयायियों के लिए ही चिंतन कर सकते हैं सारे जगत के पालन की चिंता इनका विषय नहीं होती क्योंकि ये सारे जगत के पालनहार नहीं होते जो सारे जगत का पालनहार है भरण पोषण का 'मार्ग' सबको सदा से वही दिखता आया है, वेद, बाइबिल और कुरआन देख लीजिये. आपको मानवजाती का मेन्यू मिल जायेगा ।
2- सत्य एक ही होता है लेकिन औरत मर्द बच्चा बूढ़ा और बीमार हरेक उसका पालन अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही करता है पहाड़ मैदान, टापू और रेगिस्तान की भौगोलिक दशाओं का भी मानव पर प्रभाव पड़ता है इसीलिए सत्य के पालन में इनसे भी बाधा और सुविधा पैदा होती रहती है सर्दी गर्मी और बरसात हर एक  मौसम में आदमी का आचरण बदलता रहता है इससे पता चलता है कि अच्छा उपदेशक सत्य का उपदेश करते हुए संबोधित व्यक्ति की मानसिक और भौगोलिक परिस्तिथियों पूरा ध्यान रखता है. जो इन्हें नज़रअंदाज़ करता है वह लोगों को खामखाँ परेशान करता है
'इरफ़ान' मिल जाये, मार्ग मिल जाय तो इन्सान का जन्म सफल होजाता है,
@ सफत आलम साहब !
अस्सलाम अलैकुम , मैं आपकी समीक्षा को भी उतने ही चाव से पढ़ता हूँ जितना कि किसी सार्थक लेख को. इसीलिए आप नित्य टिपण्णी देने कि मेहेबानी करें ताकि हमें एक बावकार और बशिआर आदमी से रूहानी गिज़ा रोज़ाना मिलती रहे । 'इरफ़ान' मिल जाये, मार्ग मिल जाये तो इन्सान का जन्म सफ़ल होजाता है, हमें नेक बात बताइए सबको एक बनाइये, रब की तरफ बढाइये, आपसे यही दरख्वास्त है