लेखक - योगेंद्र यादव
आपका दोस्त इस घड़ी में भी फच्चर लगाने से बाज नहीं आया। यह शिकायत मेरे बारे में थी और मुझे ही सुनाई जा रही थी। संदर्भ 30 सितंबर की शाम का था। सभी न्यूज चैनलों पर उच्च न्यायालय के फैसले का स्वागत हो रहा था। बीती को भुलाकर अब आगे बढ़ने का आह्वान हो रहा था। लेकिन मुझ जैसे कुछ लोग ‘मैं न मानूं’ का राग अलाप कर टीवी स्टूडियो का माहौल बिगाड़ने पर तुले थे। यह पूछा जा रहा था कि मेरे जैसे लोग रंग में भंग क्यों डालते हैं।
मैं पलटवार कर सकता था। ऐसे लोगों को याद दिला सकता था कि रथयात्रा के दौरान यही आडवाणी जी कहते थे कि आस्था का मामला किसी भी कोर्ट-कचहरी से ऊपर है। मैं पूछ सकता था कि न्यायालय के निर्णय के प्रति इतनी श्रद्धा कब से पैदा हुई? कहां गई थी यह श्रद्धा छह दिसंबर, 1992 को, जब सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं? फिर मैंने सोचा कि दूसरे चाहे जो भी करें, कम से कम मुझ जैसे लोगों को अदालत का सम्मान करना चाहिए।
मैं कई कानूनी तर्क गिना सकता था। पिछले दस दिनों में कई पूर्व न्यायाधीशों और कानूनविदों ने तमाम सवाल पूछे हैं, जिनका कोई जवाब नहीं है। मिल्कियत का फैसला करने के बजाय संपत्ति के बंटवारे की बात कहां से आई? अगर वक्फ बोर्ड का दावा गलत है, तो उसे एक-तिहाई हिस्सा भी क्यों दिया गया? आस्था का एहसास यकायक मिल्कियत का दावा कैसे बन जाता है?
इस बीच पिताजी का फोन आता है। मैं उन्हें यह सब कानूनी तर्क तफसील से समझाता हूं। जीवन भर ‘न हिंदू बनेगा, न मुसलमान बनेगा’ के सेक्यूलर विचार में आस्था रखने वाले पिताजी ने आखिर में कहा, बेटा, किसी न किसी को तो इस झगड़े को खत्म करना था। कोर्ट ने कम-से-कम एक रास्ता तो दिखाया है। अब बस हिंदू-मुसलमान इसे मान लें और इस झगड़े को खत्म करें। अब ध्यान इस पर दें कि आगे से ऐसा फसाद इस देश में फिर कभी न हो। उनकी बात से मुझे वह शिकायत समझ में आई, जिसका जिक्र शुरू में किया गया है। सच तो यह है कि अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय के फैसले के बाद से आम लोगों ने राहत की सांस ली है। हिंदुओं और मुसलमानों का बहुमत आज यह चाहता है कि इस फैसले की ज्यादा चीर-फाड़ न की जाए। अगर कुछ तकनीकी गड़बड़ी है भी, तो उसे ढका रहने दिया जाए। बस अब इस मामले को रफा-दफा किया जाए।
दरअसल मुझे इसी मानसिकता से ऐतराज है। अयोध्या विवाद ने इस देश का मन तोड़ा है। लाखों-करोड़ों हिंदुओं और मुसलमानों के मन में जहर घोला है, बैर के बीज बोए हैं। ऐसे गहरे जख्म ऊपरी पोचा-पट्टी से भर नहीं जाएंगे। आज हम अपना मन भले ही बहला लें कि यह फोड़ा हमारी आंखों से ओझल हो गया है, लेकिन इलाज किए बिना यह फोड़ा नासूर बन सकता है। एक दिन यह ऐसी शक्ल में फूट सकता है, जो पहले से भी ज्यादा खौफनाक हो। इस सिलसिले में हमें दक्षिण अफ्रीका के ट्रुथ ऐंड रेकोन्सिलिएशन आयोग के अनुभव से सीखने की जरूरत है। समाज के गहरे जख्म को भरने के लिए सच के नश्तर की जरूरत है, ताकि बरसों से पड़ा मवाद बाहर निकल सके और दवा-मलहम अपना काम कर सकें।
अयोध्या विवाद से टूटे दिलों को जोड़ना है, तो सबसे पहले सच बोलने की हिम्मत करनी होगी। सच यह है कि जहां आज रामलला विराजमान हैं, वह सैकड़ों वर्षों से मुसलिम धर्मावलंबियों की आस्था का भी केंद्र था। यह भी सच है कि बहुत लंबे अरसे से वहां के हिंदुओं की आस्था रही है कि वह राम जन्मभूमि है। इस पुराने झगड़े का हिंदू-मुसलमानों ने अपने तरीके से हल निकाल रखा था। गुंबद वाली जगह पर मुसलमान नमाज अता करते थे, तो चबूतरे पर हिंदू आरती करते थे। सच का सबसे कड़वा पहलू यह है कि विभाजन के बाद से कम से कम तीन बार (पहले 1949 में, फिर 1986 और अंत में 1992 में) प्रशासन की मिलीभगत का फायदा उठाकर अल्पसंख्यकों की आस्था को चोट पहुंचाने का काम किया गया। बहुसंख्यक समाज की धार्मिक आस्था को बचाने के लिए संविधान को दांव पर लगा दिया गया। इस सच को स्वीकार किए बिना अयोध्या मामले में कोई मध्यस्थता टिकाऊ नहीं हो सकती।
अयोध्या मसले पर उच्च न्यायालय के फैसले से मेरा असली ऐतराज यह नहीं है कि उसका बंटवारा सही नहीं है या कि उसके कानूनी तर्क नाकाफी हैं। मेरी परेशानी दरअसल यह है कि सच इस फैसले से गुम हो गया है। मेरी पीड़ा यह है कि यह फैसला उन आंखों के आंसू नहीं पोंछता, जो छह दिसंबर, 1992 को भीगी थी (इनमें इस लेखक की दो आंखें भी शामिल हैं)। ठगे गए लोगों से आज उदारता की मांग की जा रही है। इसलिए अब सर्वोच्च न्यायालय के पास जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उम्मीद करनी चाहिए कि न्याय के सबसे ऊंचे पायदान पर सच बोलने में किफायत बरतने की मजबूरी नहीं होगी। मुसलमान को यह भरोसा होगा कि उसे इस देश में महज किरायेदार नहीं समझा जाता। एक बार सच को स्वीकार कर लिया जाएगा, तो जमीन के बंटवारे के एक नहीं, बल्कि अनेक रास्ते खुल जाएंगे। अगर उसके बाद भी मुसलमानों की राजनीति करने वाले ठेकेदार नहीं मानेंगे, तो खुद मुसलमान ही उनसे निपट लेंगे।
यह लेख लिखते वक्त चंदन भाई का फोन आया। वह बोले, अंगरेजी के रेकोन्सिलिएशन का सही हिंदी अनुवाद ‘मन-मेल’ होना चाहिए। वह यह भी बोले कि मन-मेल के लिए पहले मन का मैल निकलना जरूरी है। मुझे लगा कि यह बात कहीं न कहीं रामचरितमानस से जुड़ती है।
http://www.amarujala.com/Vichaar/VichaarDetail.aspx?nid=219&tp=b&Secid=4&SubSecid=10
अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पात्र )
सोमवार ,11 अक्तूबर 2010
15 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब, जो भाई यह आज नहीं पढ सके उनके लिए आपने आसानी कर दी अच्छा किया
मेरी किताब का लिंक अपने ब्लाग पर लगाने का धन्यवाद
nice post
यह फैसला उन आंखों के आंसू नहीं पोंछता, जो छह दिसंबर, 1992 को भीगी थी (इनमें इस लेखक की दो आंखें भी शामिल हैं)
सच का सबसे कड़वा पहलू यह है कि विभाजन के बाद से कम से कम तीन बार (पहले 1949 में, फिर 1986 और अंत में 1992 में) प्रशासन की मिलीभगत का फायदा उठाकर अल्पसंख्यकों की आस्था को चोट पहुंचाने का काम किया गया।
अयोध्या मसले पर उच्च न्यायालय के फैसले से मेरा असली ऐतराज यह नहीं है कि उसका बंटवारा सही नहीं है या कि उसके कानूनी तर्क नाकाफी हैं। मेरी परेशानी दरअसल यह है कि सच इस फैसले से गुम हो गया है।
इस्लाम को कभी भी कोई खतरा उनसे नहीं रहा जो इस्लाम को नहीं मानते , बल्कि हमेशा इस्लाम को नुकसान पहुँचाया है दो चेहरे (मुनाफ़िक़)वाले मुसलमानों ने
उच्च न्यायालय के द्वारा दिया गया फैसला न्याय का जनाज़ा है. एक आम आदमी को तो सिर्फ यह दिखाई दे रहा है कि एक ऐसी मस्जिद, जिसमें सदियों से नमाज़ पढ़ी जा रही थी, गुंडों ने कानून हाथ में लेकर तोड़ दी और उन गुंडों के इस शर्मनाक काम का विरोध करने के बजाय पूरे देश के मुस्लिम दुश्मन तत्व एक हो गये और इस प्रकार से साम दाम दंड भेद वाली नीति (जो कि मानवता को कलंकित करने वाली नीति है) अपनाकर आपसी भाईचारे के वातावरण को दूषित कर दिया गया. इसकी जितनी भर्त्सना कि जाये कम है. मुसलमानों को चाहिए कि इस ज़ख्म को हमेशा ताज़ा रखें ताकि भविष्य में उस जगह पर एक भव्य मस्जिद का निर्माण हो सके.
@ S.M. MAsum Sahab !
मैं आप की बात से सहमत हूँ
अगर मासूम साहब से सहमत हो तो,
कुर आन से वो भोजन-मेनू क्यों नहिं दे देते, जिसमें पूरी कायनात के लिये समस्त मानवजाति के भविष्य के आहार की सूचि प्रस्तूत की गई है।
सुज्ञ जी आप अपना ज्ञान सभी धर्मों के बारे मैं बाधाएं तभी आप शक के दाएरे से निकल पाएंगे. और बेबुनिआद सवाल करने की जगह , समाज मैं अमन और शांति की बातें कर सकेंगे.
मासूम साहब,
बेबुनियाद सवाल?, शायद आपको पता नहिं इस सवाल की बुनियाद एज़ाज़ साहब की डाली हुई है।
बडा आसान होता है, बडी बडी बातें कर लेना, सभी धर्मो पर ज्ञान बढानें का प्रयास करता हूं तो पता नहिं……………
Nice post .
The ultimate way for women दुनिया को किसने बताया की विधवा और छोड़ी हुई औरत का पुनर्विवाह धर्मसम्मत है ? - Anwer Jamal
@ जमाल जी
प्रश्न ये है की अपनी माँ और पुत्रवधू से निकाह कर सकते है ये किस ने बताया और चरित्रहिनो की आईयाशियो को जायज कर उन को जन्नत दिलाई .
और मोहामद जी के समय से पहले ही पुनर्विवाह था
बीबी खदीजा जो मोहम्मद जी की पहली पत्नी थी उन का दूसरा विवाह था और वो उन से १५ वर्ष बड़ी थी
Nice post,
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