कुआलालंपुर। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि रिजर्व बैंक को मलयेशिया में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए। रिजर्व बैंक पर भारत में इस तरह की व्यवस्था शुरू करने का दबाव है। मालूम हो कि इस्लामिक बैंकिंग ब्याज मुक्त बैंकिंग व्यवस्था है। यह पूछे जाने पर कि क्या भारत मलयेशिया में इस्लामिक बैंकिंग से कुछ सीख लेना चाहेगा मनमोहन ने कहा, इस्लामिक बैंकिंग के प्रयोग को लेकर समय-समय पर मांग उठती रही है। मैं निश्चित तौर पर रिजर्व बैंक से सिफारिश करूंगा कि मलयेशिया में इस संबंध में क्या हो रहा है, वह इस पर नजर डाले। मलयेशिया के दौरे पर कुआलालंपुर पहुंचे मनमोहन ने इससे पहले मलयेशियाई प्रधानमंत्री मोहम्मद नजीब तुन अब्दुल रज्जाक के साथ आर्थिक एवं रणनीतिक मामलों परविस्तृत बातचीत की। अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पत्र ) ब्रहस्पतिवार, 28 ,अक्तूबर 2010 |
Saturday, October 30, 2010
PM to seek RBI’s views on Islamic banking
इस्लामिक बैंक से सीख ले रिजर्व बैंक -PM
Monday, October 25, 2010
Women in man's world आधी आबादी, दूसरा दरजा - Ritu Saraswat
उन्नति के तमाम दावों के बावजूद हमारा देश महिलाओं को अवसर देने के मामले में पिछड़ा हुआ है। विश्व विकास मंच की लैंगिक समानता के संदर्भ में जारी हालिया रिपोर्ट से यह तसवीर उभर कर आई है।
रिपोर्ट में चार आधारों पर महिलाओं की हालत का आकलन किया गया है। ये हैं - शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक ताकत। राष्ट्रपति के पद पर एक महिला के आसीन होने और पंचायतों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षण के चलते महिलाओं को जो राजनीतिक सबलता मिली है, उसी के आधार पर इस श्रेणी में भारत 23वें स्थान पर है, अन्यथा बाकी तीन श्रेणियों में स्थिति बदतर ही है। स्वास्थ्य के मामले में 132वां, आर्थिक भागीदारी में 128वां तथा शिक्षा में 120वां स्थान देश में महिलाओं की दोयम दरजे की नागरिकता को उजागर करता है।
रिपोर्ट में चार आधारों पर महिलाओं की हालत का आकलन किया गया है। ये हैं - शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक ताकत। राष्ट्रपति के पद पर एक महिला के आसीन होने और पंचायतों तथा स्थानीय निकायों में आरक्षण के चलते महिलाओं को जो राजनीतिक सबलता मिली है, उसी के आधार पर इस श्रेणी में भारत 23वें स्थान पर है, अन्यथा बाकी तीन श्रेणियों में स्थिति बदतर ही है। स्वास्थ्य के मामले में 132वां, आर्थिक भागीदारी में 128वां तथा शिक्षा में 120वां स्थान देश में महिलाओं की दोयम दरजे की नागरिकता को उजागर करता है।
भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है, जो स्पष्ट करता है कि महिलाएं मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रति लाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में अपने यहां 540 की मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढांचागत कमियों की ओर इशारा करती है। विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मामलों में पुरुष और महिलाओं के बीच अंतर लगातार बना हुआ है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हर दिन बच्चे को जन्म देते समय या इससे जुड़ी वजहों से तीन सौ महिलाओं की मौत होती है। चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर पीठ थपथपाता देश, क्या इस सचाई को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएं न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि कई बार उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएं नौकरी पा भी गई हैं, वे शीर्ष पदों तक नहीं पहुंच पातीं। महज 3.3 प्रतिशत महिलाएं ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं। ‘समान कार्य के समान वेतन’ की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में भी स्त्री और पुरुष श्रमिकों में भेदभाव किया जाता है। महिला आर्थिक गतिविधि दर (एफईएआर) भी केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह दर 72.4 प्रतिशत और नॉर्वे में 60.3 प्रतिशत है। वैश्विक आकलन से पता चलता है कि विश्व के कुल उत्पादन में करीब 160 खरब डॉलर का अदृश्य योगदान देखभाल (केयर) अर्थव्यवस्था से होता है और इसमें भारत की महिलाओं का मुद्रा में परिवर्तनीय और अदृश्य योगदान 110 खरब डॉलर का है। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार समाज के आर्थिक वर्गों की गणना करते हुए ‘घरेलू महिलाओं’ को कैदियों, भिखारियों और यौनकर्मियों के समकक्ष रखा गया। स्वयं भारत सरकार द्वारा आर्थिक वर्गीकरण करते हुए देश की आधी आबादी को इस दृष्टिकोण से देखा जाना न केवल श्रम की गरिमा के प्रति घोर संवेदनहीनता का परिचायक है, बल्कि यह भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह की पराकाष्ठा भी है।
यह निर्विवाद सत्य है कि स्त्रियों की स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है अगर वे ‘शिक्षित’ बनें, परंतु आज भी देश का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि शिक्षा से स्त्री का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री की सीमा घर की चारदीवारी ही है। नतीजतन शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों के 73 प्रतिशत की तुलना में लड़कियों का प्रतिशत मात्र 48 है।
क्या आज भी हमारी संकुचित मानसिकता महिलाओं को उनका अधिकार सहजता से देने को तैयार नहीं है? ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हम आज के वैश्विक संदर्भ में समाज के उस मूलभूत ढांचे में परिवर्तन लाने का प्रयास करें, जिसमें महिला विकास के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर दिया गया है। तभी हम सच्चे अर्थों में लैंगिक समानता और विकास के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे।
-ऋतु सारस्वत
अमर उजाला ( हिंदी दैनिक समाचार पत्र )
मंगलवार, 26 , अक्तूबर, 2010
मंगलवार, 26 , अक्तूबर, 2010
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