मंदिर-मस्जिद, धर्म और जाति के झगड़े में उलझे लोगों को मुजफ्फरनगर के कांधला कस्बे से सीख लेनी चाहिए। यहां मंदिर-मस्जिद के बीच की दीवारें मिट गई हैं। मस्जिद की नींव पर ही मंदिर की बुलंद दीवार खड़ी है। बीते 150 वर्षों से ये धर्मस्थल साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल बने हुए हैं।
मुजफ्फरनगर के कांधला कस्बे में स्थित जामा मस्जिद में एक तरफ अजान होती है, तो दूसरी ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर में घंटे बजते हैं। इन दोनों इमारतों का इतिहास बताता है कि 1391 में फिरोजशाह तुगलक शिकार खेलते हुए इस कस्बे में पहुंचा था। देर हो जाने के कारण उसने वहीं एक उच्च स्थान पर जुमे की नमाज अदा की और बाद में यहीं जामा मस्जिद खड़ी हुई।
कांधला निवासी नुरुल हसन के अनुसार 1840 में इस मस्जिद की मरम्मत हुई। बाद में इसके बराबर में खाली पड़ी जगह पर जब मस्जिद को विस्तार देने का निर्णय लिया गया तो वहां हिन्दुओं ने इसे मंदिर की जगह बताकर काम रुकवा दिया। यह मामला अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजों की अदालत में भी चला और उस समय मुस्लिम समाज के मौलाना महमूद बख्शकांधलवी ने साम्प्रदायिक एकता की मिसाल वाली गवाही दी। उन्होंने अपनी गवाही में कहा था कि मस्जिद के बराबर में खाली जगह मंदिर की ही है, वहां पर मंदिर ही बनाया जाए।
बाद में न्यायालय के आदेश पर यहां मंदिर निर्माण की इजाजत मिली और यहां लक्ष्मी नारायण मंदिर बनाया गया। तब से आज 160 साल हो बीत चुके हैं, और ये दोनों धार्मिक स्थल सांप्रदायिक सौहार्द्र की नींव और दीवार बने खड़े हैं।
कस्बा निवासी अमित कुमार और इरशाद का कहना है कि दोनों धर्मो के बीच यहां प्यार आज भी अनोखा है। मंदिर के पुजारी अजान के समय स्पीकर बंद कर देते हैं। दोनों सम्प्रदाय के लोग बड़ी सहजता और भाईचारे के साथ एक-दूसरे के साथ रहते हैं।
http://www.livehindustan.com/news/location/rajwarkhabre/248-0-139766.html&locatiopnvalue=17
मंगलवार, 05 अक्टूबर, 2010
मुजफ्फरनगर के कांधला कस्बे में स्थित जामा मस्जिद में एक तरफ अजान होती है, तो दूसरी ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर में घंटे बजते हैं। इन दोनों इमारतों का इतिहास बताता है कि 1391 में फिरोजशाह तुगलक शिकार खेलते हुए इस कस्बे में पहुंचा था। देर हो जाने के कारण उसने वहीं एक उच्च स्थान पर जुमे की नमाज अदा की और बाद में यहीं जामा मस्जिद खड़ी हुई।
कांधला निवासी नुरुल हसन के अनुसार 1840 में इस मस्जिद की मरम्मत हुई। बाद में इसके बराबर में खाली पड़ी जगह पर जब मस्जिद को विस्तार देने का निर्णय लिया गया तो वहां हिन्दुओं ने इसे मंदिर की जगह बताकर काम रुकवा दिया। यह मामला अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजों की अदालत में भी चला और उस समय मुस्लिम समाज के मौलाना महमूद बख्शकांधलवी ने साम्प्रदायिक एकता की मिसाल वाली गवाही दी। उन्होंने अपनी गवाही में कहा था कि मस्जिद के बराबर में खाली जगह मंदिर की ही है, वहां पर मंदिर ही बनाया जाए।
बाद में न्यायालय के आदेश पर यहां मंदिर निर्माण की इजाजत मिली और यहां लक्ष्मी नारायण मंदिर बनाया गया। तब से आज 160 साल हो बीत चुके हैं, और ये दोनों धार्मिक स्थल सांप्रदायिक सौहार्द्र की नींव और दीवार बने खड़े हैं।
कस्बा निवासी अमित कुमार और इरशाद का कहना है कि दोनों धर्मो के बीच यहां प्यार आज भी अनोखा है। मंदिर के पुजारी अजान के समय स्पीकर बंद कर देते हैं। दोनों सम्प्रदाय के लोग बड़ी सहजता और भाईचारे के साथ एक-दूसरे के साथ रहते हैं।
http://www.livehindustan.com/news/location/rajwarkhabre/248-0-139766.html&locatiopnvalue=17
मंगलवार, 05 अक्टूबर, 2010
13 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी पोस्ट
मंदिर-मस्जिद, धर्म और जाति के झगड़े में उलझे लोगों को मुजफ्फरनगर के कांधला कस्बे से सीख लेनी चाहिए।
nice post
बहुत अच्छी पोस्ट
अच्छा है
दोनों सम्प्रदाय के लोग बड़ी सहजता और भाईचारे के साथ एक-दूसरे के साथ रहते हैं।
Nice Post
वंदे ईश्वरम्
इसी तरह प्रेम संदेश देते रहें
बहुत अच्छी मिसाल
सारथक
सबसे पहले तो नवरात्रा स्थापना के अवसर पर हार्दिक बधाई एवं ढेर सारी शुभकामनाएं आपको और आपके पाठकों को भी
धर्म से है मनुष्य का कल्याण
धर्म नहीं तो कल्याण नहीं। आओ धर्म की ओर, आओ कल्याण की ओर। इसी को अरबी में ‘हय्या अलल फ़लाह‘ कहते हैं। मस्जिदों से यही आवाज़ लगाई जाती है, सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि सब के लिए लेकिन सब तो वहां क्या जाते, मुसलमान भी कम ही जाते हैं और वहां जाने वाले भी अपने कर्तव्यों का पालन करने में सुस्ती दिखाते हैं।
160 साल हो बीत चुके हैं, और ये दोनों धार्मिक स्थल सांप्रदायिक सौहार्द्र की नींव और दीवार बने खड़े हैं। अच्छी मिसाल है और ऐसी मिसालें वाराणसी मैं भी मौजूद हैं.
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